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Hariom Kumar

Abstract

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Hariom Kumar

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नदी

नदी

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मैं नदी हूं, जानते तो होगे ही मुझे तुम सब,

किंतु, क्या वाकई जानते हो मुझे ?

मैं कब बनी, कैसे बनी,

ये तो अब स्वयं मुझे भी याद नहीं है,

किस घड़ी, किस क्षण मेरी उत्पत्ति हुई,


इसका स्पष्ट स्मरण तो नहीं है मुझे,

पर ऐसा लगता है कि कोई ऐसा क्षण रहा होगा,

जब पर्वतों के बीच, बरसों से दबी, सुप्त आकांक्षाओं ने,

हृदय को उसके स्पंदन का एहसास कराया होगा,

जब मेरी सहनशक्ति जवाब दे गई होगी,


मैं निकल पड़ी होउंगी, उन्हीं पर्वतों को,

चीरती, तोड़ती हुई, दौड़ पड़ी होउंगी,

जिनके बीच न मालूम मैं कब से यूं ही पड़ी हुई थी,

महज़ पानी बनकर, यह भी भूलकर,


कि मेरा कोई अलग भी अस्तित्व है,

कि मेरे अंदर एक नदी भी है,

यह एहसास मुझे पहली बार तब हुआ,

जब उन दंभी पत्थरों को तोड़ती हुई,


उन्हें उनकी कमजोरी का एहसास कराती हुई,

धकेलते हुए, स्वयं अपना रास्ता बनाती गई,

कंदराओं, जंगलों,समतल जमीन पर,

उन्मुक्त, स्वच्छंद, अपने मन के अनुरूप बढ़ी,


जहां से भी गुजरी, जीवन संभव करती गई,

अपने अतीत,अपने गम को भुलाकर,

मुस्कुराती हुई, खुशियां बांटती गई,

और वहां पहुंची, जहां अपनी बाहें खोले,


सागर कर रहा था मेरा इंतजार, न मालूम कबसे,

शायद तब से ही जब मेरा उद्भव किया होगा विधाता ने,

उन निर्मम पत्थरों के बीच, उस पानी के स्वरुप में,

किंतु सिर्फ पानी बने ही रह जाना,

क्या मेरी नियती हो सकती थी ?


कदापि नहीं, और तब मैंने,

अपने इस वर्तमान स्वरुप का निर्माण किया,

स्वयं मैंने, नदी ने, स्वयं नदी ने नदी का सृजन किया,

तुम जिसे देखकर सिर्फ 'नदी' ही तो है, कह देते हो,

वो सिर्फ नदी नहीं है, वो एक इतिहास है,


एक अनंत इतिहास, जिसका बस एक पहलू,

आज मैंने तुम्हें बताया है, बस एक पहलू,

खोलूंगी मैं अपने बाकी पहलुओं को भी,

किसी रोज़, फुर्सत में, जब तुम्हारे पास भी वक्त होगा,


फुर्सत होगी और होगी दिलचस्पी, जानने की मुझे,

सुनाऊंगी मैं तुम्हें उस दिन,

नदी की पूरी कहानी, मेरी पूरी दास्तान।


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