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Ranjeeta Govekar

Abstract

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Ranjeeta Govekar

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नदी

नदी

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मैं जन्मी पहाड़ों पर, किल कारिया गुंजी थी

धारा बनकर में बढी़ तब नटखट चंचल थी।

दौडती पहाड़ों से, जंगल के भीतर थी

पैरो तले जमीन थी, आकाश का दर्पन थी।


आगे आगे जब बढी़, घबरा गईं यौवन से

चाल मेरी धीमी हुई, उस अलग से मोड पे।

संगम पे संगम करती रिश्ते नातों के

मैं धीरे धीरे बढ़ चली कर्तव्य के रस्ते पे।


हर एक को अपना समझा, एक जैसा प्यार दिया

जो भी था एक बूंद बूंद सब में ही बाट़ दिया।

पर त्याग का और इस दान का मुझ को

कुछ ऐसा सिला मिला है।


हर एक ने मुझ को समझ के गटर

सब मुझमें डाल दिया है।

मैं तो माता बनी थी सब की

बदले में कुछ नहीं मांगा था।


बिन मांगे अंत ही करेंगे बच्चे

बस ऐसा कभी नहीं सोच था।


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