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Kavita Agarwal

Abstract Tragedy

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Kavita Agarwal

Abstract Tragedy

नारी

नारी

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बचपन छूटा जवानी आई ।

मां ने कहा " *अब तू हो गई पराई* " ।।

यह तेरा घर नहीं ।

मन मर्जी तेरी चलेगी नहीं ।।

दूल्हा बनकर आएगा सैंया ।

ले जाएगा तुझे अपनी नगरिया ।।

मां बाबा की दुलारी ।

तू आना कभी कभी यहां प्यारी।।

 वह घर तेरा अपना है।

 नए नए सपनों से संजोना है ।।

अंजानो के बीच अपनी एक जगह बनाना है।

 सबको जीत घर अपनाना है।।

 कहती बिटिया अपने मन में "मैया" ।

 उनके लिए सब कुछ किया पर वह बना पाए मेरे सैयां ।।

सताते हैं, रुलाते हैं ।

किसी और की बाहों में रहते हैं।।

 तुम्हारी सीख याद रखूं।

अर्थी में ही यहां से जाऊ।।

या औरत का अभिमान बनू।

 अपने स्वाभिमान की आन रखूं।।

 कशमकश सी जिंदगी है ।

औरत का घर द्वार नहीं है।।

पहले मां बाप की दुलारी होती है।

 फिर पति के घर की सेवादारी होती है ।।

कभी यहां ।कभी वहां ।

क्या यही नारी की जिंदगी है ? 


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