ना मंदिर ना मस्ज़िद
ना मंदिर ना मस्ज़िद
यूं ही बैठे-बैठे सोचती हूँ
कभी काश ना कोई मंदिर
ना कोई मस्जिदों का शहर
होता
बस वो जगह होता जहाँ
इंसानों का उम्मीदों से
रौशन हर सहर होता
ना ईद, रमज़ान सुबह की
अजान तुम्हारी होती ना
होली, दीवाली रातों के
जगराते हमारे होते, कोई
हिन्दू कोई मुसलमान
ना होता काश दोस्ती प्यार
त्योहारों का एक मौसम
एक ही पहर होता
अल्लाह ईश्वर को बांटने की
ज़िद से थक कर दो पल
सुकून से बैठने को काश
सब के आँगन में बे मज़हबी
टहनियों पर लदे इंसानियत
के फूल का एक छोटा सा
शजर होता..
(सहर -सुबह
शजर - पेड़)