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SHWET SINGH

Abstract

4.0  

SHWET SINGH

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ना जाने क्यूं ...

ना जाने क्यूं ...

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नाजाने क्यूं ख़ुद से वो सवाल कर लिया,

नाजाने क्यूं खुद से जंग छेड़ दी,


नाजाने क्यूं लोगों से कतराने लगा हूं

नाजाने क्यूं चुप सा हो गया हूं


उम्मीदें जो खुद से थी, अब भार सी लगती हैं,

आंसू अब बेवजह बेह जाते हैं।


कमजोर नही हूं मैं ,अब भी लड़ता हूं,

नाजाने क्यूं अब थोड़ा ज्यादा डरता हूं।


कुछ खोने ,कुछ बिखरने का डर है शायद

नाजाने क्यूं अक्सर अब उदास सा रेहता हूं।


 समय के अंधेरों में मैं खो गया शायद,

दिन का उजाला अब नजर नहीं आता है

ना दिखती है सड़के जो बाहर ले जाती है,

ना वो मांझी का मुझको हाथ नजर आता है

चुप रेहना ,चिल्लाना ,दोनो अब व्यर्थ हैं

नाजाने यूं रूक जाने का क्या अर्थ है


 सफर ने अब तक बहुत कुछ सिखाया है

जो किताबें नहीं बताती,वो भी समझाया है

खामियां थी मेरी या राह ही गलत है

हर पल ज़ेहन में अब सवाल चल रहे हैं


कुछ लम्हें कुछ पल भूल नहीं पाता हूं

नाजने क्यूं भरी आंखों लेके मुस्कुराता हूं


नाजने क्यों खुद में अब खो जाता हूं

नाजाने क्यूं खुद को मैं खुद तोड़ जाता हूं।


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