मूक सृष्टि
मूक सृष्टि
कलरव नित प्रति, मौन होता जा रहा,
खगों का गगन भी जैसे गौण होता जा रहा।
गुंजन भ्रमर का हो गया है, सुनना दुर्लभ,
घनेरे वृक्षों का, स्वार्थमय मोल होता जा रहा।
चमन है वंचित, रवि की उजली आभ से,
छायन सिर्फ कवित्त का सिरमौर होता जा रहा।
जमीं का ऋण शेष है, अभी चुकाना हमको,
झिलमिलाता व्योम, अब नया ठौर होता जा रहा।
तमाशा बना दिया प्रकृति की देन का हमने,
थल-जल सभी पर, हमारा जोर होता जा रहा।
दिखाती है जब रूप विकराल ये मूक सृष्टि,
धैर्य खो के मनुष्य तब और अघोर होता जा रहा।