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Saleha Memon

Abstract

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Saleha Memon

Abstract

मुस्कुराया करती हैं

मुस्कुराया करती हैं

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चांद सितारे देख के

टूटती -बिखरती हैं

फिर कभी कभी 

रो भी देती हैं 

न जाने क्युं

अपने ख्वाबों को 

अश्क में कैद 

रखा करती है

सूरज के किरण

देख के फिर वो

हल्का सा मुस्कुरा

देती हैं 

कोई कहता है

न जाने कितने

राझ गहरे 

अपने आप में

दबा कर रखती हैं

रातों में वो

अश्क से

अपनी आंखों को

नहलाया करती हैं

सुबह होते ही

चहेरे को कुछ

सोने सा कवच 

पहनाया करती हैं

शाम की संध्या

को देख के

यादों की हर वो

सरहद पार

कर लेती हैं

न जाने कितने

राज गहरे 

अपने आप में

छुपाया करती हैं ।



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