मुस्कानों का गुलदस्ता बना लूँ
मुस्कानों का गुलदस्ता बना लूँ
चाहा आज दिल ने,
मैं दो पल को रो लूँ,
हर दर्द अपने भीतर का,
आँसुओं से धो लूँ।
उफान पर है अंतस में मेरे,
कड़वाहटों का दरिया,
क्यूँ ना आज इसका मैं,
हर बाँध खोलूँ।
बह जाये पहले,
मेरे मन की हर उदासी,
हो जाये सब निर्मल,
ना रहे कोई मैल जरा भी।
फिर मुस्कानों का एक छोटा-सा,
मैं यहाँ उपवन लगा लूँ,
बैठूँ हर रोज़,
कुछ देर इस चमन में,
चुन लूँ कुछ फूल,
और गुलदस्ता बना लूँ।
यूँ ही खिलते रहें ये फूल,
हर रोज़ इस चमन में,
कि मैं अपने घर का,
हर कोना सजा लूँ।
