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ताकती क्षितिज को

ताकती क्षितिज को

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आंखों में आँसू लिए

फिर आई शाम

आज कुछ निराश सी थी

संभाले थी दिन भर की थकन

कुछ निढ़ाल सी थी।


छूट रहा था साथी सूरज का हाथ

हां! वो कुछ उदास सी थी

ताकती क्षितिज को पल-पल

ढल रही थी रात के सांचे में शाम

कुछ हैरान सी थी।


ओढ़ कर तारों की चुनर

थाम रही थी हौले हौले

चाँद का दामन

लग रही खुशहाल सी थी

गढ़ रही थी ख्यालों में अपने।


एक नई भोर

कि शाम के होठों पर अब

खिली एक मुस्कान सी थी।


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