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sakshi saini 886

Abstract Inspirational

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sakshi saini 886

Abstract Inspirational

मुरझा रही थी मैं

मुरझा रही थी मैं

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चिल्ला रही थी मैं, बुला रही थी मैं।

जाने क्यों ऐसा लगा धीरे धीरे फूलों की तरह मुरझा रही थी मैं।

कोई न आया रास्ता दिखाने,

बहुत इंतजार किया, पर कोई न आया,

 न जाने क्यों ऐसा लगा धीरे धीरे फूलों की तरह मुरझा रही थी मैं।


मन मेरा भी बहुत था घूमने का, ज़िन्दगी जीने का,

पर एक हवा का झोंका सब ले गया उड़ाकर,

मानो जैसे वो सब अब मायने ही न रखता हों मेरे लिए,

बहुत कोशिश की दुबारा खड़े होने की, दुबारा ज़िन्दगी जीने की,

दुबारा खुलकर जीने की, पर अब शायद वो सब मुश्किल लगने लगा।


और देखते ही देखते समय बीतता गया।

पर कोई आशा की किरण न मिली,

फिर सोचा क्यों न किताबों को ही अपनी दुनिया बना लूँ

और समा जाऊँ उसमें हमेशा हमेशा के लिए।

फिर मोड़ आया और मौसम ने करवट बदली,

सुनसान से दिल ने फिर खिलखिलाना शुरू किया।

यही देखते देखते आँख खुली,

और फिर पाया वहीं रोजमर्रा ज़िन्दगी वहीं घिसापिटा दिन।

अब मानो कोई फरिश्ता ही सब कुछ बदलेगा।

क्योंकि न जाने क्यों ऐसा लगा धीरे धीरे फूलों की तरह मुरझा रही थी मैं।


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