मंजरी
मंजरी


मंजरी के मुख कमल पर लालिमा क्यों छा रही है?
क्या किसी की बात पर यूँ मंजरी शरमा रही है?
है सुहाना दिन कि बाबा बात पक्की कर चुके हैं,
मंजरी के सुहृदय में स्वप्न स्वप्निल भर चुके हैं;
आज हर एक बात पर यूँ मंजरी इतरा रही है,
क्या किसी की बात पर यूँ मंजरी शरमा रही है ?
आ गया वह दिन सुहाना जब वो दुल्हन बन रही थी,
माँ-पिता के आरज़ू की पूर्ण छवि उतर रही थी ,
आ गई बारात अब तो मंजरी घबरा रही है,
अनगिनत भावों से व्याकुल कुछ नहीं कह पा रही है;
फिर न जाने बात ऐसी हो गयी थी कुछ बड़ो में,
थे पिता कुछ अनमने से माँ पड़ी थी उलझनों में,
बात फैली आग जैसी हर तरफ़ छाया धुआँ था,
मंजरी को भी कहीं आभास सा होने लगा था;
सर की पगड़ी दे चरण में,थे खड़े बाबा शरण में,
आज उनकी आबरू सरेआम लुटती जा रही है;
पर कहीं भी लोच न था वर-पिता के भाषणों में,
कह रहे थे ‘तुम भिखारी हो’ खड़े क्यों सज्जनों में,
मैंने सोचा-तुम स्वयं ही दोगे सारी सम्पदाएँ,
होंगे लक्ष्मी माँ के दर्शन पूर्ण होंगी कामनाएँ;
पर तुम्हारे हाल पर तो मेरे साथी हँस रहे हैं,
मोल क्या दोगे ‘रतन’ का कानाफूसी कर रहे हैं,
मेरी भी इज्जत है उनमें मैं कहीं सिर क्यों झुकाऊँ?
माँग पूरी कर दो या बारात वापस लेके जाऊँ?
यह सुना जब मंजरी ने, ना स्वयं को रोक पाई,
रक्त आँखों में यूँ भर कर वह सभा में दौड़ आई,
दे पिता को खुद सहारा उसने धरती से उठाया,
उनकी बहती आबरू को अपने आँचल में सजाया,
फिर कहा सुन लो सभी-मुझको नहीं कोई गिला है,
यह ‘रतन’ जो बुत बना है,वह तो पत्थर की शिला है,
आज यूँ उसके पिता,मेरे पिता से लड़ रहे हैं,
अपने जन्में पुत्र का सरेआम सौदा कर रहे हैं;
मैं कभी ऐसे पति को हाय! पा जाती यदि,
मेरा भी सौदा ये करता बच न पाती मैं कभी,
है यही व्यवसाय इनका आदमी को बेचते हैं,
ना मिले यदि मूल्य पूरा नया ग्राहक देखते हैं,
फिर पुनः अपने 'रतन' को मांजने के ही लिए,
राख की ख़ातिर वधू को अग्नि में ढकेलते हैं,
मैं कहूँगी यह सभी से मन में ठाने सब अभी,
न दहेज देंगे न लेंगे आज यह प्रण लें सभी;
आज अपनी बात से सबके हृदय पर छा रही है,
मंजरी वह पुष्प है जो बाग को महका रही है ।