मंजिल
मंजिल
अंधकार ही अंधकार है
चहुँ ओर
कहीं भी नहीं है
एक उदित होती आशा की किरण
मैं हो चुकी हूँ
इतनी निराश
टटोल भी नहीं सकती
राह मंजिल की ओर
चार कदम बढ़ाते डरती हूँ
कहीं फिसल न जाऊँ
असफलता की गहरी खाई में
जिससे उबर पाना हो
असंभव मेरे लिए
क्या मुझे जीना पड़ेगा
अपनी मंजिल पाये बगैर
एक बिना मकसद का जीवन
नहीं जीना मुझे इस तरह
कदाचित बदल देनी होगी मुझे
मेरी राह, मेरी मंजिल
हाँ तलाशनी होगी मुझे
एक और मंजिल
एक और मंजिल