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Deepika Kumari

Abstract

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Deepika Kumari

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मजदूर की व्यथा

मजदूर की व्यथा

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होकर जीवन से मजबूर,

बना कर्म से वह मजदूर।

स्वाभिमान की रोटी लाने,

निकल गया वह घर से दूर।


भीख मांगने से अच्छा है

मेहनत की दो रोटी खाए,

सही मार्ग पर चलकर

क्यों ना पेट की प्यास बुझाई जाए।


पर समाज के इज्जतदार लोगों से

जब उसका पाला पड़ा,

तो जाना उसने कि इज्जत

शब्द का नहीं उन्होंने अर्थ पढ़ा।


मुझसे भी जाहिल है ये

पढ़ें लिखें प्रतिष्ठित लोग,

अपशब्दों से घायल कर मुझको

कहते खुद को शिक्षित लोग।


मॉल में जाकर खरीदारी कर

मोल भाव नहीं करते लोग,

लेकिन मेरे आकर समीप

मुझसे गरीब बन जाते लोग।


थोड़ा कम कर लो, सही लगा लो,

20 का 15 करते लोग,

मेरा ही पेट लगते हैं काटने

बिन समझे मजबूरी का रोग।


महंगे रेस्टोरेंट में जाकर

वेटर को टिप देते लोग,

उस टिप का हर्जाना भी

मुझसे ही भरते हैं लोग।


अरे भैया, ओ रिक्शेवाले !

हम रोज यहां से जाते हैं।

30 मत मांगो 20 ही ले लो

कहकर वो इतराते हैं।


अमीर तो क्या मध्यमवर्ग

भी मेरा दुश्मन बन जाता है,

उसकी बचत बैंक का पैसा

भी मुझसे ही जाता है।


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