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Pradeep Verma

Tragedy

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Pradeep Verma

Tragedy

मजदूर और मजबुर

मजदूर और मजबुर

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चल कर आगे बढ़ना ही मेरी जिंदगी है!

क्या करूं मजदूर हूं मजबूर हूं।


हां धूप मुझे भी लगती है पैर मेरे भी जलते हैं!

रास्ते में मिले भोजन से ही अपना पेट भरते हैं।

घर आंगन गली मोहल्ले गांव से अभी दूर हूं!

पैर में भले छाले पड़े क्या करूं मजदूर हूं मजबूर हूं।

  

संक्रमण का डर मुझे भी है! परिवार की भी चिंता है।

भीड़ में दिनभर चलता हूं सब करते मेरी निंदा है!

देश में संक्रमण भले ही फैले लेकिन मैं बेकसूर हूं!

मर भी सकता हूं क्या करूं मजदूर हूं मजबूर हूं।


गांव से दूर पेट पालने चला था 

परिवार की चिंताओं को टालने चला था!

ना मदद की उम्मीद है ना सुविधाओं से भरपूर हूं!

मौत से लड़ कर घर जाना है! क्या करूं मजदूर हूं मजबूर हूं।

               


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