मजबूरी और मजदूरी
मजबूरी और मजदूरी
वो मजबूर हुआ,
मजदूर बना...
कंधों पर जीवन का बोझ
पुस्तकों का बस्ता दूर हुआ।
गुमनाम अंधेरे में,
एक मुरझाया नन्हा सा फूल
जिन हाथों में कॉपी- कलम होनी थी
वे साफ कर रहे -
ढाबे पर जूठें थाली, प्लेट, गिलास...
जिसे ममता के आंचल में पलना था
वो मोटे सेठ की गाली खाता है।
पेट की खातिर सब सपने चूर हुए
नन्हें हाथों की लकीरें बिलख रहीं...
अपनों के सब साये दूर हुए।
कानून सभी झूठे हैं -
मैंने तो आगरा के न्यायालय परिसर में,
मासूमों को चाय बेचते देखा है
मालिक की गाली खाते देखा है,
भारत के भविष्य को मरते देखा है।
सरकार कोई ऐसी आए,
जो मासूमों की आंखों में चमक लाए
मजबूरी और मजदूरी दोनों को समझे।