'समय'
'समय'
समय यूँ बीतता चला गया
लगता क्षण में बदल गया
पलक झपकतें यूँ गुजर गया
ना जानें वो किधर गया
ये पता भी ना चला
उम्र हमारी कैसे बढ़ी
बच्चे से कब बड़े हुए
खुद के सपने सजाते-सजाते
कब बच्चों के सपने सजाने लगे
अभिभावक हम बन गए
ये पता भी ना चला
जिंदगी की इस आपाधापी में
उम्र कब हमारी निकलती गई
कई पायदाने चढ़ती गई
दिन ढ़ले रातें गुजरती गई
ये पता भी ना चला
बच्चे हमारे बड़े हुए
कद में भी हो गए बड़े
सबकुछ उन्हें सिखाया था
आज उनसे सीख रहे हैं
कब समय ने ली अंगडाई
ये पता भी ना चला
कभी लंबे ,काले ,घनें बालों पर हम इतराते थे
तरह-तरह की चोटियाँ बनाते थे
कब ये सफेद होने शुरु हो गयें
ये पता भी ना चला
एक समय था जब हम जिम्मेदारी थे मम्मी-पापा की
कब हो गए जिम्मेदार
हम भी अपने बच्चों के
ये पता भी ना चला
बच्चों को सिखाने सवारने मे
दुनिया के लायक बनाने मे
हम हो गए इतने मशगूल
एकदिन बच्चे भी हो गए दूर
ये पता भी ना चला
एक दौर वो ऐसा था
जब हम बेखबर सो जाते थे
दिन-दुनिया की फिक्र नहीं
मस्ती मे हँसते गाते थे
अब है जाने कितने काम
इन बातो मे कब नींद उड़ गई
ये पता भी ना चला
भरे-पूरे परिवार से नाता हम रखते थे
सबके साथ मस्ती हम करते थे
उन सबका साथ छुट गया
परिवार हमारा सिमट गया
हम दो मे रह गया
ये पता भी ना चला
पहले पापा के साइकिल में
हम जी भर घुमा करते थे
दुनिया भर की खुशियाँ जी लिया करते थे
कब साइकिल से बड़ी सी गाड़ी पर आ गए
ये पता भी ना चला
कभी माँ के हाथों का बना
हर पकवान हम चखते थे
उस स्वाद को हम अमृत सा महसूस करते थे
कब उस स्वाद को छोड़
बाहरी स्वाद पर आ गए
ये पता भी ना चला
कभी सामने से हम सबके साथ
हँसते बोलते सुख-दुःख साझा किया करते थे
आज सबकुछ साझा करने को
कब इंटरनेट की दुनिया मे आ गए
ये पता भी ना चला
