Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!
Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!

निशान्त मिश्र

Abstract

4.8  

निशान्त मिश्र

Abstract

मिट्टी का मानुष

मिट्टी का मानुष

1 min
23K


सम्हालो खुद को ना इतना, सम्हलने में बिखर जाओ

ये मिट्टी का घड़ा, पक कर भी, लोहे का नहीं बनता

रहो कच्चे ही, अच्छा है, कि रूंदे ही तो जाओगे

तपन इतनी सही, पर चोट, छोटी, सह न पाओगे


कि तुमको डर है, बारिश में कहीं, बह न जाओ तुम

खर पतवार संग मिलकर, कीचड़, बन न जाओ तुम

चले जब ज़ोर की आंधी, न बनकर धूल उड़ जाओ

कि खेतों में रहोगे, रोज़ ही जोते न जाओ तुम


ये बारिश रोज़ आती है, ये तुमको तो पता होगा

ये बारिश भी थमेगी, हो नहीं अनजान इससे भी

ये माना बूंदें बारिश की, सदा तुमको बहाएंगी

रहोगे साथ अपनों के, तो खुशबू ही बहाओगे


जो कीचड़ ही बनोगे, कमल, कीचड़ में खिलाओगे

बनोगे मेढ़ खेतों की, तो खेतों को बचाओगे

कि बन खेतों की मिट्टी, यूं ही तो तुम बह न जाओगे

चलेगा हल तुम्हीं पर, तुम ही सोना भी उगाओगे


है ये भी सच, कि तुम ही, बन घड़ा, ठंडक बहाओगे

यूं ही एक बूंद बारिश से, कि ऐसे, गल न जाओगे

कि सच है, बात ये भी, तुम न बारिश झेल पाओगे

पड़ी बारिश, जो एक बार झमझम, जुड़ न पाओगे


ये तुमको सोचना है, क्या बनोगे, क्या रहोगे तुम

कि कच्चे ही रहोगे, या कि पक्के ही बनोगे तुम

ये फिर एक बार सोचो, कि कहां कैसे रहोगे तुम

बनोगे आत्मनिर्भर भी, कि बस बोझ होगे तुम !


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract