मेरी महफ़िल,नज़्म और तुम
मेरी महफ़िल,नज़्म और तुम
बेवक़्त जो कभी ग़ज़ल लिखने को कहती थी
आज किसी शेर में चेहरा उकेर दो तो
उसके ख़्वाब भी नाराज़ हो उठते हैं..
कल रात ही एक ऐसा नाराज़ ख़्वाब देखा मैंने
एक महफ़िल की सदारत कर रही थीं तुम....
अब ग़ज़ल खुद ही सदरे-मोहतरम हो
तो चार चाँद तो लगने ही थे महफ़िल को।
कुछ उम्दा शेर एक एक शायर के बाद
इश्क के काफ़िले में काफ़िला मिलाये जा रहे थे..
तभी एक नौजवान शायर का दस्तख़त पढ़ा तुमने
और महफ़िल को आगे बढ़ाने की डोर सौंप दी उसे....
मंच पे पहुँच हलक से एक मिसरा तक न निकाल सका वो,
बस तुम्हारी आँखों में वो एक पुरानी ग़ज़ल ढूँढता रहा...
वो ग़ज़ल जिसे पढ़ के कोई नौजवान मुहब्बत को सच्चाई ना मान बैठे...
शायद इसलिए वो तुमने अब मिटा दी है।
महफ़िल में ये ख़ामोश सी नज़्म भी सबको इश्क़ का मतलब बता गयी...
वो भी अश्कों को बाँध मंच से वापस चला गया
और लोग भी हीर रांझा में खो गए।।