मेरी मेज़
मेरी मेज़
सुबह सबेरे जब
मै पहुचता हूँ अपनी मेज पे
ये मेरी कुर्सी मुझे घुरती सी है
कभी अनकही आवाज में चिढ़ाती भी है
अरमानों की जो डोली ले चले थे कभी
उन्हें ना पाने की कसक जताती सी है.
अब तो वो वाक्या भी याद ना रहा
सब कुछ पा के भी,
दिल में बस इक मलाल ही रहा
मजिल पाने के इरादों से बढे थे
जिन रास्तों पर कभी
वो अब बस सपनों में ही याद रहा
साल-महीने इसी कशमकश मे गुजरे
कभी चिल्ला पड़ा और कभी बस गुमसुम सा रहा
हाँ.… मैं इन कागजों के ढेर में कही खो सा गया
बटन दबाते-दबाते कही सो सा गया...
दिन बीतते गये
मेज पर मेरे,
कैलेंडर के पन्ने नए होते गये
हर रोज बिखरते नये कागजों की धूल
मेरे इरादों की ज़मी पर परत दर परत जमते गये
बस हर रोज मै
अपने आप से लड़ता रहा
हाँ…. मै अपने इस मेज पर
कही खो सा गया
बटन दबाते दबाते कही सो सा गया.……।