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दादा जी की चप्पल

दादा जी की चप्पल

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कमरे के बाहर,

किनारे में, सलीके से, सहेज कर,

रखी रहती थी, मेरे दादा जी की चप्पल।


अपने दामन में

इस जिंदगी के सुख - दुःख,

राहो में मिले दर्दो को समेटे,

निश्छल भाव से साथ निभाती थी,

मेरे दादा जी की चप्पल।


रोज सुबह एक नई अंगड़ाई लेती,

अपने दरारों की फिक्र किये बिना,

उनके साथ चुपचाप हो लेती थी,

मेरे दादा जी की चप्पल।


कभी -कभी थोड़ी शर्माती थी जब लोग,

उसमे पड़े दरारों से घूरते थे,

मगर किसी नई दुल्हन की तरह,

दामन में उनके, खुद को समेट लेती थी,

मेरे दादा जी की चप्पल।


अभी कल ही, दादा जी ने,

उन जख्मो को भरने की कोशिश की थी,

राहों में मिले घावों पर थोड़ी,

मरहम पट्टी करवाई थी,

खुद पर इठलाती, थोड़े ही दिन के लिये सही मगर,

जवान दिखने की कोशिश कर रही थी,

मेरे दादा जी की चप्पल।


एक दिन अचानक,

अपने आसपास बहुत सारे,

चप्पलो को महसूस किया उसने,

किसी को कमरे के बाहर तो किसी को,

तेजी से दादा जी के कमरे में घुसते देख रही थी,

सब के चेहरे की उदासी को ताड़,

खुद के नसीब पर रोती रही,

मेरे दादा जी की चप्पल।


अगले १३ - १४ दिन तक,

बहुत सारे चप्पलों के बिच, पिसती रही थी वो,

कभी इस कोने में, तो कभी उस कोने में,

कभी किसी रेक पर फेकी जाती,

सारे दुःख चुपचाप सहती रही

मेरे दादा जी की चप्पल।


फिर एक ऐसी सुबह आई,

जब किसी अनजान मुशाफिर के झोले में,

आँखों में ढेरों आंसू और दिल में दफन यादों को लिये,

मेरे घर को निहारती चली जा रही थी

मेरे दादा जी की चप्पल।


चिल्लाती रही, बिलखती रही,

मानो समझाने की कोशिश कर रही हो,

मुझे बस उनके कमरे के किसी कोने में पड़े रहने दो,

मुझे रोक लो, मुझे न जाने दो,

और आखिर में अपने को किस्मत के हवाले

छोड़ दी मेरे दादा जी की चप्पल।


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