मेरी कमी !
मेरी कमी !
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सुनो ये बे-मौसम
बारिश बे-सबब नहीं है
ये कुदरत भी अच्छी
तरह से समझती है
मेरे ज़ज़्बातों को भी
अच्छी से जानती है
और भीगा-भीगा सा
ये मेरा मन अब
छलकने को आतुर है
पर मैं अपनी इन आँखों
से हर बार तुम्हें वो
जतलाना नहीं चाहती हूँ
अपना भीगापन अपनी
भीगी भीगी आँखों से
आखिर मैं ही क्यों
हर बात जतलाऊँ
क्या तुम्हें मेरी कमी
बिलकुल नहीं खलती है !