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Archana Verma

Abstract

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Archana Verma

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मेरे जैसी मैं

मेरे जैसी मैं

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मैं कहाँ मेरे जैसी रह गयी हूँ 

वख्त ने बदल दिया बहुत कुछ

मैं कोमलांगना से 

 काठ जैसी हो गई हूँ


मैं कहाँ मेरे जैसी रह गयी हूँ 

समय के साथ बदलती विचारधारा ने 

मेरे कोमल स्वरुप को

एक किवाड़ के पीछे बंद तो कर दिया है 


पर मन से आज भी मैं वही ठहरी हुई हूँ 

मैं कहाँ मेरे जैसी रह गयी हूँ 

पहले मैं सिर्फ घर संभाला करती थी 

वख्त आने पे रानी रानी लक्ष्मी बाई बन 


दुश्मन को पिछाडा करती थी 

आज मैं एक वख्त में दो जगह बंट गई हूँ 

मैं कहाँ मेरे जैसी रह गयी हूँ 

भीतर से दिल आज भी पायल बिछुवे पहन 


अपने घर संसार में बंधे रहने को कहता है 

पर ज़रूरतों के आगे इन बातों के लिए 

वख्त किस के पास बचा है 

अपनी नयी पहचान बनाने को 


पुरानी परम्पराओं से खुद को

आजाद कर चुकी हूँ 

मैं कहा मेरे जैसी रह गयी हूँ 


पहले नारी अपने घर की देहलीज़ में

ही सिमटी नज़र आती थी  

अब नारी सशक्त हो पुरुषों से कंधे 

से कंधा मिला बढ़ती नज़र आती है 


पर कोमल से सशक्त बन ने के सफ़र में 

बहुत हद तक पुरुषों सी ज़िम्मेदार हो गई हूँ 

मैं कहा मेरे जैसी रह गयी हूँ 

मैं ये नहीं कहती के ऐसा होने में 


कोई बुराई है पर जब बदलते वख्त के साथ 

 पुरुष का किरदार वही रहा 

तो मैं क्यों दोहरी जिम्मेदारी निभाते 

अपनी पुरानी पहचान खो चुकी हूँ 


मैं कहा मेरे जैसी रह गयी हूँ 

ये माना वख्त के साथ नजरिया 

बदलना पड़ता है 

अब घर सँभालने गृह लक्ष्मी को भी 


बाहर निकलना पड़ता है 

दोहरी ज़िम्मेदारी निभाते मैं 

और जवाबदार हो चुकी हूँ 

मैं कहा मेरे जैसी रह गयी हूँ 


वख्त ने बदल ने बहुत कुछ

मैं कोमलांगना से 

काठ जैसी हो गई हूँ

मैं कहाँ मेरे जैसी रह गयी हूँ।


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