मेरा वजूद
मेरा वजूद
कल तुम थी, आज मैं हूँ
तुम्हारा ही प्रतिबिंम्ब,लेकिन तुमसे भिन्न
तुम कूपमंडूक की तरह
मर्यदाओं से बंधी रही
मैंने लक्ष्मण रेखा लांघी है।
वजूद को अपने जान गयी हूँ
खुद को अब पहचान गयी हूँ
किसी की जननी, किसी की बहना
तो कहीं किसी की भार्या हूँ।
सृष्टि की रचयिता हूँ मैं
परिचय की मोहताज नहीं
मैं संपूर्ण हूँ क्योंकि मैं एक नारी हूँ
आत्मसात करा हर रूप को मैंने।
माँ से लेकर संगिनी हूँ मैं
हर रिश्ते में बसी रागिनी हूँ मैं
फिर क्यूँ समझू अपूर्ण स्वंय को?
अन्धविश्वास को छोड़ चुकी हूँ
जंजीरो को तोड़ चुकी हूँ।
अग्रसर करूँगी, नित नए आयाम
नहीं लेना अब मुझे विराम
कंटकाकीर्ण हो राहें चाहे जितनी
बाधाओं को पार करना है
बस इंद्रजीत बनकर हरपल आगे बढ़ना है
मुझे पता है लक्ष्य को अपने पाऊँगी
दुनिया का आंठवा अजूबा भी बनकर दिखलाऊँगी।