मधुस्मर्ति
मधुस्मर्ति
उस भोलेपन का शरीक मैं हूँ कायल, भागते बजती इकतारे सी पायल
वह बेलो के झुरमुटो में छिप जाती कई, ढूंढकर चाहता ले लू प्रीति देह गाती वही
सुन इस प्रेमगान भागी आ लिपट जाये, झूले ने बनाया मोह सुभागी यो लटकाए
आवारगी नहीं शरद का है नशा और परिहास, वो कहे मधुवचन पिपासा ही है ग्रास
इन कपोलों में मिलती मसरी सी गैयता, सुर को भूले फिरती अंगों में थिरकता
संभाले वह यौवन का डगर और नीरज,वहां उगे हुए प्रेमवन की नहर और हटज
मसूरी के मोह के अमुर्त्य रंगों को सजाए, चिलबिल है शशि सा कृत्य तरंगों को बहाय
श्रृंगार को कुसुम और नीर का रुप है,आप में गुम मन काव्य भी कुरूप है
कब हो देर की चोट हो प्रभाकर की, नीरस बैर, झूठन की, उजागर की
आ गिर पड़ा बाजूबंद निशा शायर का , गाय कुछ ना विरह है इस कायर का
क्यों क्या स्वरागिणी की छवि का वियोगी है,या काल पाश से अछूता अश्वत्थामा अरोगी हैं
माया ने जल काया का मन भिगो डाला,दरिद्र तन का मूर्छित कलह धो डाला