मैं
मैं
मैं, बचपन से
आज तलक खुद को
ढूंढती हूँ
मैं, जिसे
खुद में पता है
उसका फ़लसफ़ा क्या है,फिर भी
खुद को ढूंढती हूँ
मैं, जिसे
पता है,जीवन क्या है
संयोग, वियोग समझती हूँ, फिर भी
खुद को ढूंढती हूँ
मैं, जिसे
समय की समझ है
सफलता,विफलता जानती है, फिर भी
खुद को ढूंढती हूँ
मैं, जिसे
परिस्थियाँ की परख है, संगति,
सहमति असमती खेल मानती है,फिर् भी
खुद को ढूंढती हूँ
मैं, जिसे
खुद के लक्ष्य का पता है
उसी पथ को चुनना है,फिर भी
खुद को ढूंढती हूँ
मैं, जिसे
'दुनिया छद्म है' पता है
मृगतृष्णा के पीछे भागता है, फिर भी
खुद को ढूंढती हूँ
मैं,जिसे
जीवनचक्र का पता है
सभी इसी के गिर्द घूमता है, फिर भी
खुद में खुद को ही ढूंढती हूँ
मैं जानती हूँ
जीवन सूत्र यही है
यही काल चक्र भी
नियति, प्रणति, उन्नति,अवनति
सभी का रहस्य छुपा है इनमें ही
जानती तो सब हूँ
परन्तु,
एक आदत सी हो गई है कि
हर बात में खुद से ही खुद को
सवाल करने की, और जानती हूँ
इन सवालों का जवाब भी है मुझसे ही
इसलिये, मैं
आजतक...
हो सकता है आजीवन
खुद में,खुद से ही
खुद को ढूंढती रहूँगी.