व्याख्या प्रेम की
व्याख्या प्रेम की
प्रेम का नाम सुनते ही ना जानें लोग एक ही दिशा में सोचने लगते हैं क्यों,
मात्र सजनी से साजन का प्रेम ही प्रेम को परिभाषित करके
उसके दायरों को सीमित आखिर करता है क्यों?
अपने बच्चे का पेट भरने के वास्ते भूखी सो जानें वाली मां का बलिदान क्या कम है ?
उस देशप्रेमी का प्रेम भी अद्भुत है जो सीमा पर तैनात ना होकर भी
राष्ट्र की सुरक्षा हेतु प्रति पल सजग है।
सिर्फ चिकनी-चुपड़ी बातें ही प्रेम का आधार नहीं हों सकतीं,
आलिंगन साकार तो उन्हीं का है जिन्हें मीलों की दूरियाँ भी जुदा नहीं कर सकतीं।
जैसे कृष्ण का नाम राधा के बिन अधूरा है, सीता के बिना होता ना राम का जाप,
उसी तरह प्रेमियों का एक दूजे के बिन है ना कोई अस्तित्व ना ही पहचान।
प्रेम का आधार विश्वास व सहिष्णुता है, बिन इनके किसी का प्रेम हुआ ना कभी पूरा,
जो ना पूर्ण कर सकें इन अहम आवश्यकताओं को,
उनका प्रेम से रिश्ता सर्वदा रहता आधा-अधूरा।
प्रेम को लिप्सा से मत जोड़ो, ये तो एक पवित्र एहसास है जो
भावनाओं से भावनाओं को और हृदयों से हृदयों को जोड़ता है,
प्रेम को सीमाओं में मत समेटो, इस में सभी बाधाओं को फांदने का अद्वितीय सामर्थ्य समाहित है।
एक भक्त की सच्चे प्रेम और भक्तिभाव से की गयी प्रार्थना तो भगवान को भी धरती पर खींच लाती है,
सर्व -शक्तिमान है हर वो व्यक्ति, सरपरस्त साये की तरह जिसके संग सर्वदा कोई है....
