मन मौसम
मन मौसम
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बदलते बरस में मौसम चार
मानव मन का भी यही व्यवहार
स्वच्छंद कल्पनाओं में कामुक वसंत
लघुघट में भरता सौंदर्य अनंत ।।
गुजरता ग्रीष्म मधु चिंतन में
बितता कैसे वसंत प्रेमांचल में
जकड़े रहता सजग स्वप्नपाश
भ्रमित करता स्वर्गसागर अहसास ।।
आत्मा पर जब पतझड़ आता है
सुस्त बन मनःपंख सिमट जाता है
कुहासों में बढ़ जाता छोड़ रिद्धि अनमोल
अनदेखा करता पड़ा जैसे नाले में बेमोल ।।
शिशिर भी आता दिखाने दुर्दिन
त्याग नश्वर को बन जाता यह नवीन ।।