मैं कुछ भी नहीं
मैं कुछ भी नहीं
कुछ अपने मुझसे रूठे हैं
कुछ सपने हैं जो टूटे हैं
कुछ साथी पीछे छूट गए
जो काँच की तरह टूट गए।
इससे ज्यादा दर्द न मैं सह पाऊँगा
ये लब खामोश रहे अच्छा है
इसके आगे मैं न कुछ कह पाऊँगा।
रात अकेली है भले दहर में
चाँद का आधा कुछ भी नहीं
एक टूटा तारा आसमान पर
मैं इससे ज्यादा कुछ भी नहीं।
