मैं खुश हूँ
मैं खुश हूँ
मैं खुश हूं कि मुझको कम मिलेगा
इसलिए कि नही गये मंदिर
नही गये मस्जिद और ना ही गये
चर्च धक्के देते हुए लोग बूढ़ों को
जवानों को और
बच्चों को
मिल जाये उन
को ही सही कुछ जो चाहते
कहीं ज्यादा जरूरत उनको ही तो है,
और उस भगवान को भी
टीका लगाके धन्य होते
स्नान कर जो पुण्य कमाते
नदियों को पुण्ययित करते
कुछ ऐसे लोग
बम बम भोले गूंजती
घंटों की टंकार थी
शायद इसीलिए नहीं
सुना कोई
बच्चे के रोने की आवाज
उसकी मां जो खो रही उस भीड़ में,
छूट रही,
जानना भी नहीं चाहा
की क्यों रो रहा ?
और खाली नहीं
हुई राहें ?
अपेक्षा भी नहीं
बस बताती हूँ
की भक्त हैं भगवान के ऐसे ही
यहां,
संवेदना से परे
क्या सच मे ये भक्त हैं ?
या
पाखंड की रेखा बनाये ,
जा रहे मिलने उन्ही से
जो उन्हीं के बीच
जिनको धक्का दे रहे
या उनके स्वयं में ही
जिनको पीसते,
छोड़ते मझधार में ही ?
ना जाने कहाँ हैं
जिनको खोज रहे लोग
सम्वेदना से परे जाकर
क्या एक बार सोच सकते ?
क्या चाहिए?
क्यों चाहिए?
और कैसे चाहिए ?
या कैसे भी चाहिए।
