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Vandana Singh

Abstract

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Vandana Singh

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मैं और मेरी सोच

मैं और मेरी सोच

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कभी कभी उन बातों पर भी हँस देती हूं जो कभी मैं कह नहीं पाई

जो दिन रात मेरे मन मस्तिष्क पर नाचते रहे

वक्त बे वक्त मुझे अपने होने का एहसास दिलाते रहे

पर कभी अधरों से फूटकर गिर नहीं पाए

तो ऐसी कितनी ही बातें होंगी जो

लोग क्या कहेंगे, कहना ठीक होगा कि नहीं, मेरी क्या छवि होगी

के डर से मन ही मन में घुट कर रह गए

उन बातों का अस्तित्व भी कुछ मेरी तरह ही रहा होगा

बेमतलब, बैमानी, घुटे, दबे

रोज़ ही ये सोचकर उठना कि आज कुछ मन का होगा

और देर रात चढ़े, नाकामी की रजाई ओढ़े दुबक जाना कि

कल कुछ मन का होगा

और इस तरह सोचते कितने बरस, कितनी उम्र, कितने पड़ाव बीत जाते है

फिर भी हँसी उन बातों पर ही केवल आती है

जो मैं कभी कह ना पाई

इसपर कतई नहीं कि

ना जता पाई अपने होने का एहसास।


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