मैं आगे बढूं
मैं आगे बढूं


चाँद तारों की ख़्वाहिश, नहीं की मैंने
नाम हवाओं में गूंज जाए तो बस
मैं आगे बढूं।
कभी धारा बनकर कभी किनारा
बनकर
कभी फूलों, की, खुशबू बनकर
फिज़ाओ में महक जाऊँ
तो मैं आगे बढूं।
उड़ना चाहती हूँ मगर ज़मीन पर
चलकर
मंज़िल पाना चाहती हूँ मगर खुद
हासिल कर कर
बस राह मिल जाये
तो मैं आगे बढूं।
महफिलें नाम से शुरू चाहे न हो मेरे
पर मेरे ज़िक्र पर थम जाये
तो मैं आगे बढूं।
चलते चलते भीड
़ मुड़ के देखे, न
चाहे मुझ को
मैं जब भी चलूँ भीड़ रुक जाये
तो मैं आगे बढूं।
ख़्वाहिशों का समन्दर भी इस दिल
में उठता है
मौज आती है फिर थमता है मुझ को
किनारा मिल जाये
तो मैं आगे बढूं ।
लिखते लिखते मेरी स्याही ख़त्म ना
हो कभी
पन्नों में मेरी लिखावट निशानी बन
जाये तो मैं आगे बढ़ू
तब तक मैं लिखती रहूँ जब तक
कवियों की भीड़ में मैं भी कवि न
कह लाऊँ
तो मैं आगे बढूं
मैं आगे बढूं।।