STORYMIRROR

Alfiya Agarwala

Abstract

4  

Alfiya Agarwala

Abstract

लफ्ज़ों की जालसाज़ियाँ

लफ्ज़ों की जालसाज़ियाँ

1 min
452

लफ़्ज़ों की जालसाजियाँ बड़ी , बदबखत होती है ।

कहाँ अल्फ़ाजों को तराशने का हुनर सिखला गयी।


हम तो बड़े ही नदान थे, दुनिया ही थी ये जो,

नये रंग दिखला गयी ओर सिखला गयी।


हम तो हथेली पे दीया रख के चलते हैं, उसके भरोसे पर

न जाने न जाने कौन सी हवा आकार उसको बुझा गयी।


तीरे अदाजे़ बयां कर देता है उसका निशाना लेकिन,

चूक हमसे ही हुई हम खुद ही उसका निशाना बन बैठे।


लाचारियाँ इन साँसों की कमबख्त जीने के लिए,

बेबसी इतनी भी नहीं थी की जिंदगी खौ बैठे।


मत रुक कलम मेरी चलते चलते,

गर तू थम गई तो साँस भी थम जाएगी उनकी।


जो समझते हैं तुझे अपना रहबर उन बेजुबानों की,

तू आस है, परवाज़ है उम्मीद भी फिर बन जाएंगी उनकी।।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract