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Nand Kumar

Inspirational

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Nand Kumar

Inspirational

मातृभूमि चालीसा

मातृभूमि चालीसा

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अन्न रत्न की प्रसविनी, सकल श्रृष्टि की मात।

पाइ जन्म तव अंक में, हर्ष न हृदय समात।।

विनवौ जन्मभूमि जग पावन,

उत्तर पर्वत राज सुहावन।

दक्षिण सिन्धु बहति अति भारी,

पद पखारि हिय होहि सुखारी।

मध्य भाग बाहित बहुत सरिता, 

तृषा हरनि जन मन सुखदाता।

कोप विनाश सृजन तव हासा, 

वन रोमावलि वायू श्वासा।

तव गिरि गुहा पवित्र मनोहर,

सिद्धि प्रदायिनि कष्ट शोक हर।


तिन महंगाई अगणित ऋषि मुनि ग्यानी,

भजहि ईश तजि मैं विज्ञानी।

तव आंचल महं अगणित कानन,

बसहि तहां अहि गज पञ्चानन।

रत्न रसायन नर तहं पावै,

रोग शोक तिन पाइ मिटावै।

अतुलित सुख उपजावन हारी,

मातु दया तव जग से न्यारी।

सब पर सम उपकार तुम्हारा,

तुम ही सब की पालन हारा।


तुम धन धान्य प्रायोजित माता,

सकल श्रृष्टि की जीवन दाता।

सुर नर असुर नाग अरु किन्नर,

सबहि मातु तोरे है किंकर।

भेद रहित वात्सल्य तुम्हारा,

सब पर सम है प्यार अपारा।

तुम सम मातु न कोउ जग आना,

करहि देव सब गौरव गाना।

अमिय समान इहां कर नीरा,

शीतल मन्द सुगंध समीरा।

विविध धर्म अरु जाति अनेका,

भाषा वेश एक ते एका ।


बहु भिन्नता इहां है सोहै, 

उर भिन्नता न एकहु अहै।

भारत जन्म भूमि है हमारी,

हम सब भारतीय नर नारी ।

प्रेम अहिंसा के है पुजारी,

विश्व शांति की नीति हमारी ।

तुम सुत जाए मातु अनेका,

वीर ज्ञान निधि एक ते एका।

तिन महं कछुक भये अभिमानी,

कृत्यन क्रूर आप अकुलानी।

करहि धरा पर अघ सो भारी,

होहि दुखित सब नर अरु नारी।


विकल देखि सज्जन सन्ताना,

आप गयीं जहं कृपानिधाना।

द्वौ कर जोरि विनय बहु किन्ही,

आपन करुण कथा कहि दीन्ही।

नाथ मोर सुत अति अभिमानी,

कपटी छपी नीच नहि ज्ञानी।

अनुचित कृत्य करहि मन लाई,

त्याग प्रेम अरु दया विहाई।

नहि कोऊ जन संयुत रहई,

शक्तिवन्त निर्वल नहि गनई।

तुम ढिग प्रभु लै आई आशा,

करि सहाय पुरवहु अभिलाषा।

कह प्रभु जन कर त्रास मिटावै, 

चहुदिशि शान्ति और सुख लावौ।


धीर बधाई रूप बहु धारी,

प्रभु आए जन करन सुखारी ।

राम कृष्ण गौतम अरु नानक,

शंकर महावीर जन पालक।

दयानंद आदिक विज्ञानी,

तुलसी सूर कबीर मतिधनी।

दैनिक उपदेश हरेक अज्ञाना, 

कह करु सुकृत ईश धरु ध्याना।

सबहि समान न लघु गुरु कोई,

सब कर सृजन एक ते होई।

एकहि कर सब कर आराधन,

विविध नाम अरु विविध युक्ति सन।


ईश्वर रूप सकल जग जानी,

करहु प्रेम नहि कर तिन हानी।

परहित त्याग प्रेम मन लाई,

पीडि़त जन दुख देहु मिटाई।

जो जन हरै दीन दुख भाई,

सो जग दीनबंधु ह्वै जाई।

तेहि को जग अभ्यास कछु नाही,

पावै चहुदिशि मान बडाई ।

अस मन धारि करै आचरण,

पावै सो जो जाइ नहि वरणा।

सकल श्रृष्टि हित के लिए, सुकृत करे जो कोय।

ऐसे सुत को पाय के, मही कृतारथ होय।।

सच्ची श्रद्धा भक्ति तव, मातृभूमि से होय।

धरणी पर कोउ जीव जब, दुखित तृषित ना होय।।



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