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Vartika Sharma Lekhak

Inspirational

5.0  

Vartika Sharma Lekhak

Inspirational

मात देती हूँ

मात देती हूँ

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तुम कहते हो,

मैं लिबास बदल डालूँ

मेरे झाँकते बदन से

उठती है कोई चिंगारी

जो तुम्हें अँधा कर देती है,


मैं उस चिंगारी को

इन कपड़ों की परतों में

....बुझा दूँ

लो .....मान लिया


पर क्या तुम वादा कर पाओगे

कि...इन सन्नाटों में

ऑफिसों में

और इन मोटरगाड़ियों में

तुम्हारी निगाहें,


खंजर बन

इन परतों को चीर चीर कर

मेरे उजले बदन को

मैला ना कर देंगी


तुम कहते हो

मैं ये चारदीवारी ना लांघूँ

घर पर दुल्हन से सजी

घूंघट को मुँह में भीचें

छन छन करती और बलखाती

बस तुम्हारे इर्द गिर्द फिरती रहूँ

तुम्हें....बस तुम्हें रिझाती रहूँ


लो....मान लिया

पर क्या तुम ये यकीन दिलाओगे

की कोई इंद्र तुम्हारे भेस में

भीतर ना आ पायेगा,


और फिर इस जुर्म का दोषी

अहिल्या को ना ठहराया जायेगा


तुम कहते हो

मेरी मुस्कराहट तुम्हें बहकाती है

भरे बाजार में खिलखिला उठूँ तो

तुम्हें कुछ पैगाम भेजती है


और तुम्हारे भीतर जो मर्द है

उसे लुभाती है उकसाती है

लो.....मान लिया

अपनी इस मुस्कराहट को


अलमारी की सबसे गहरी तह के नीचे

तुम्हारे बदबूदार रुमाल से पोंछ कर

लो मैं दफ़न कर देती हूँ।


पर क्या तुम मुझे बताओगे

ये जो किलकारती

मरती नन्ही कलियाँ है

जो अभी खिली भी नहीं।


पर इन मासूम मुस्कराहटों से लबालब हैं

उन तक तुम्हारा ये पैगाम

कैसे पहुँचाऊ

उनके झाकतें बदनों को

उनके बेपरवाह लुपा-छिपी के खेलों को,


कैसे संदूक में

कसोड़-मसोड़ कर ठूंस दूँ

अब.....बहुत हुआ

अब तुम्हारी हर बात को

अपनी चार इंच के नोक के तले

मसल कर...


मैं सड़कों पर बेपरवाह घूमती हूँ

लो बिठा लो खूब संसदें

या ये दबंग खाप पंचायतें

हाँ ...हाँ...हूँ मै कुलक्षण

हूँ मै बागी

पर अब...


तुम्हारी एक तरफ़ा परिभाषा की

मैं कोई पाबन्द नहीं

इस स्कर्ट में

इन रंग बिरंगे फ्रॉक में

खिलखिलाती और झूमती

दफ्तर की कुर्सी पर

गोल-गोल झूलती


अब तुम्हारी ही टेरिटोरी में

मैं तुम्हें मात देती हूँ

मैं....मात देती हूँ।।


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