विषय मुक्त रचना
विषय मुक्त रचना
उठा कलम लिखने बैठी नहीं कोई विषय
शेली भी हो जब अपनी, गद्य या पद्य
बात चली है लिखने की,चलो कुछ लिखा जाए
विषय नहीं है कुछ,तो चलो खोजा जाए
बड़ी अजब है उलझन,सोच मैं पड़ा है मन
हाथ में भी है कलम,
पर लिखूँ क्या….
यही तो है उलझन
(हुए जब हम मुक्त, आज़ादी से युक्त )
(शब्दों का भी भंडार भरा)
पर नहीं है मेरे पास लिखने को ज़रा
चलो कुछ लिखा जाए,….
विषय नहीं है कुछ तो चलो खोजा जाए
शब्दों का ही सब खेल,शब्दों की है माया
लिखूँ क्या …पर आज कुछ, समझ ना आया
कथा,कहानी,लेख
या लिखूँ कोई काव्य..
कैसी हो पट कथा, साधारण या भव्य…
अरे वाह ! क्या बात हुई…
ये तो रचना बन गयी नयी…
ना कोई शैली, और विषय से मुक्त
पंक्तिया है कुछ, भावो से भी मुक्त
(मुक्ति मैं ही सार छिपा मुक्ति मैं आनंद )
(मुक्त होके ही तो प्राणी हो जाता गद गद )
बादल से मुक्त होके, जब नीर धरा पर गिरता
लेकर नाम वर्षा का
भू की तपन हरता
विषय मुक्त, हो ये जीवन और इच्छा मुक्त शरीर
तभी तो बन पाएँगे धीर वीर गम्भीर
लोभ ना हो मन मैं किसी के
ना ईर्ष्या ना द्वेष
तभी तो मिट सकेंगे जीवन के क्लेश।