मासूम - सा लड़का
मासूम - सा लड़का
पहाड़ो की गोद में एक मासूम सा लड़का,
ठण्ड की अंगड़ाइयों को तोड़ता हुआ,
सर्द हवाओं की बाहें मरोड़ता हुआ,
चढ़ता चला जाता उन ऊँचाइयों पे, वो मासूम सा लड़का.
बर्फीली आँधियों की ना परवाह थी उसे,
ना मखमली बिस्तर की चाह थी उसे,
हिमालय के गुरुर को तोड़ता हुआ, वो मासूम सा लड़का.
जमी बर्फ की परतों को बड़ी मासूमियत से चटकाता,
सफ़ेद हुई नदियों के दिल में एक दस्तक दे जाता,
खामोश रह कर भी अपनी आँखों से सबकुछ कह जाता, वोह मासूम सा लड़का.
लेकिन, समय ने लड़के को नया मुकाम दिया,
किस्मत के तकाज़े ने
जिंदगी को नया अंजाम दिया,
आया वो एक अंजान शहर में, अपनी किस्मत आजमाने,
जब शहर ने उसे आजमाया, तो लगी उसे वादियों की यद् सताने,
तड़पता रहा वापस लौटने को, वो मासूम सा लड़का.
शहर के रास्ते में कुछ अंजान राही मिल गए,
दिल में उसके उम्मीद के कुछ फूल खिल गए,
अंजान शहर भी उसे आब लगने लगा था प्यारा,
लेकिन इस शहर की दरिंदगी ना समझ सका बेचारा,
आज़ाद पंछियों को देख कर दिल बहलाता सफ़ेद वादियों का
वो मासूम सा लड़का.
लेकिन शहर की असलियत जब उसके सामने आई,
तोह हसीं ख्वाब सी टूट गयी उसकी अंगड़ाई,
लौटने की कोशिश की उसने,
पर मंजिल की राहें बदल चुकी थी,
अब इस राह पे इतना आगे निकल चुका था
कि लौटने की उम्मीद भी टल चुकी थी,
इस दोमुहे रास्ते पे भरमाया सा चलता, वो मासूम सा लड़का.
पर ना छोड़ी उसने उम्मीद लौटने की,
उसे था विश्वास की एक दिन वो लौटेगा ज़रूर,
फिर चटकायेगा बर्फ की परतों को,
पीर से तोड़ेगा उस हिमालय का बढ़ता गुरुर,
काश लौट पाए, वहाँँ,
जिस जगह को जन्नत कहता था,
वो मासूम सा लड़का...।