STORYMIRROR

Vijaykant Verma

Abstract

4  

Vijaykant Verma

Abstract

मानवता, तू मर क्यों गई

मानवता, तू मर क्यों गई

1 min
376

रे मानवता, तू मर क्यों गई..!

न रहा अब वो वो बचपन का प्यार

न रहा वो पहले सा मां का दुलार

बाप सिर्फ पैसा कमाने में है व्यस्त

उम्मीदों का सूरज क्यूँ हो रहा है अस्त.!


क्या सुनाऊं तुमको इस मन की दशा

बहुत दर्दनाक है इस दिल की व्यथा

प्यार के आशियाने में ग्रहण लग गया है

मोहब्बत का पँछी कहीं और उड़ गया है

जुदा हो गई है हमसे हमारी ही पहचान

लुप्त हो चुकी लबों से वो पहली सी मुस्कान..!


कहीं किसी कोने में मानवीयता सिसक रही है

कहीं कोई दुल्हन दहेज की चिता में ज़ल रही है

मासूम अबलाओं के संग रेप हो रहा है

सरेआम उनकी हत्याएं हो रही है

वकील रेपिस्टों को बचाने की कोशिश में है

मजबूर अबलाओं को ही फंसाने की कोशिश में हैं..!


पैसों वालों की दुनिया कुछ अलग है यहां

उनके लिए कानून भी कुछ अलग है यहाँ

गरीबों का इस दुनिया में कोई न रहा

भगवान भी अमीरों का ही साथ दे रहा

उफ्फ..! कितनी विभत्स और डरावनी है ये दुनियां

जहां मानव तो है पर मानववीयता नहीं.!


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract