माँ
माँ
जिसकी कोई नहीं उपमा, हर अपराध जो कर दे क्षमा
ईश्वर की प्रतिलिपि है वो, माँ जैसी केवल होती माँ
लाख सुरक्षित हम हो उसकी, फिक्र का पारा कम नहीं होता
उसकी दुआओ में सजदे में, जिक्र हमारा कम नहीं होता
इम्तिहान की राते जब हमें, देर रात जगाती है
साथ में जागे चाय पिलाये, नींद वो दूर भगाती है
बात समझ में ना आये माँ ये, हुनर कहा से लाती है
दिन भर काम करे बिन रुके, फिर भी हसती जाती है
धनार्जन की मजबूरी भी, कैसा सितम ढाती है
माँ से दूर हमें कर देती, हमको बहुत रुलाती है
चाहे लाखों करोडों कमाए, महंगे से महंगा हम खाए
वो वात्सल्य वो ममता, वो अपनापन कहा से लाये
दुनिया के लिए चाहे हम, निक्कमे हे नकारे है
जैसे भी है अपनी माँ की, आँखो के हम तारे है
जो अधमी अज्ञानी माँ को, वृद्धाश्रम पहुंचाते है
कैसे पत्ते है जो देखो, जड़ को आँख दिखाते है
माँ प्रसन्न है घर में अगर तो, समझो की खुश राम है
तीर्थ भले फिर ना कर पाओ, घर ही चारो धाम है।