लोभ
लोभ
पूरे के लालच में जो
आधा छोड़े जाए,
पूरा तो उसे न मिले
आधा भी हाथ से जाए।
देखो,जो तुम चांद को
कितना सुंदर,मन को भाए,
पूरा हो या एक किरच भर
चांदनी तो बरसाए।
ज्यादा पाने की चाह में
जिसने किए प्रपंच,
मूर्ख फिर वो सिर धुने
क्या राजा,क्या रंक।
पढ़ी नहीं क्या वो दंतकथा
जिसमें एक अनोखी मुर्गी होय,
जो रोज़ एक सोने का अंडा देय,
क्या दुर्गत हुई उसकी जो सारे एक दिन लेय।
मुर्गी बची न फिर अंडा
लोभ का यही तो होय।
अधिक तो क्या दिलाए ये
पास जो हो,वो छीन लेये।
कहती है" गीत",सुन भई साधो!
लोभ,लालच करे न कोय।
जीवन उसका धन्य है जो जाने
संतोष से बड़ा धन नहीं कोय।