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ठाकुर छतवाणी

Children

3.9  

ठाकुर छतवाणी

Children

लकड़ी का घोड़ा

लकड़ी का घोड़ा

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वो भी दिन थे घर चलाने पापड़ बेलती थी मेरी दादी।

पर मैं जो कुछ मांगता था वो लाकर देती थी मेरी दादी। 


एक दिन मैंने मांगा हैसियत से जादा लकड़ी का घोड़ा। 

दूसरे दिन ही मुझे उसने लाकर दिया वो लकड़ी का घोड़ा। 


 उसके बाद न जाने कितने दिन वो पापड़ बेलती रही।                        

पर मेरे साथ वो हरदम मेरी उंगली पकड़कर चलती रही।     &nb

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वो घोड़ा दौड़ा और जिंदगी भी दौड़ी।       

दादी ने कभी मेरी उंगली नही छोड़ी।       


वो अब अलग दुनिया में रहती है

और मैं एक अलग दुनिया में रहता हूं।              


मैं अब भी उस लकड़ी के घोड़े पर

बैठकर उसे मिलने जाता हूं।  


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