लहू का श्रृंगार
लहू का श्रृंगार
मैं आज करूंगी लहू का श्रृंगार
मुझे नहीं है, पराधीनता स्वीकार
मेरे बेटे है, तलवार की तेज धार
वो देंगे सभी दुश्मनों को मार
जब-जब विपत्ति आई है
मेरे बेटों ने लाज बचाई है
कभी हल्दी घाटी का युद्ध,
कभी 1857 का संग्राम,
हर बार दिखाया चमत्कार
ऐसा किया उन्होंने संहार
मैं आज करूंगी लहू का श्रृंगार
बेटों को दिया सत्य का हथियार
उबलते लहू में शोले के जैसे है
क्रांतिकारीयों का दिया उपहार
कभी वो लोग फाँसी पर झूले,
कभी दीवारों में चुनवा कर भूले,
ऐसे वीरों शहीदों की मैं माँ हूँ
हिंद के बेटों पे भरोसा है,अपार
इतने रत्न-मोती छिपे है,गर्भ में
गिनती है, उनकी लाखों के पार
मैं आज करूंगी लहू का श्रृंगार
मुझे नहीं है, पराधीनता स्वीकार