लाज़िम है खुद से रूबरू होना
लाज़िम है खुद से रूबरू होना
उमंगें कुछ खो सी गई है
आशियाँ भी उदास है
पर कुछ तो है पुरवाई में
अभी भी एक मिठास है
नहीं रही मदमस्त हवाएं
फिजाएं भी रूखी रूखी
पर ज़िन्दगी में रुसवाई नहीं
एक नन्ही सी आस है
बदलते रहते हैं रंग डंग
कुछ सुहाते तो कुछ नहीं
कुछ समझ से परे होकर भी
जगाती मीठी प्यास है
नहीं ज़रूरी सबको समझना
बावलापन भी प्यारा एहसास है
आईने में अब अपनी परछाई भी
लगती है कुछ खास है
औरों जैसा होना ज़रूरी नही
लाज़िम है खुद से रूबरू होना
पागल, दीवाना लोग समझते रहे
बेखुदी आने लगी अब रास है।
