क्या तुम नहीं जानते
क्या तुम नहीं जानते
मैं अक्सर ये सोचने पे मजबूर हो जाती हूँ
जितना तुमसे दूर होना चाहू
पास क्यों आ जाती हूँ
अपने नसीब में मिलन की कोई रेखा नहीं
फिर भी इन बिखरे तिनको को जोड़कर
रेखा क्यों बनाती हूँ
जानती हूं, समझती हूं मैं तवायफ़ की औलाद हूं
जिस्म की मंडी में हा रंडी हूं मैं!
कुछ पल की खुशिया
एक पल में चूर हो जाती हैं
जब मैं तुमसे
तुम मुझसे समझौता कर
फिर क्यों तुम्हे अपना बनाना चाहती हूं
बिन सोचे बिन जाने तुम्हारे जवाब को
रंग देती हूं खुद की दुनिया से तुम्हें
उसी दुनिया मे खुद को एक बार और संवार लेती हूं
टूट जाते है मेरे अस्क तब
जब तुम खुद की हवस को
पूरा कर मेरे रूह को तोड़ जाते हो
तुम्हारी नजर,तुम्हारी नियत नहीं खराब
खराब तो हमारा धंधा है,
जिस्म की हवस में भूल जाते हो
अपने घर की महिला को
जब जोश खो होश में आते हो,
तब कहते हो रंडी हूं मैं !
ना खुशी पूछी जाती है
ना मर्जी ना दर्द,
शिकारी बन नोच लेते हो मेरे जिस्म को
कभी ना दिखे होंगे मेरे ज़ख्म,
साथ छोड़ जाते हो अपनी राहें बदलकर
उफ़्फ़फ़ भी नहीं करती साहब
क्योंकि जिस्म की मंडी में एक रंडी हूं मैं !