जाने कहा गए वो दिन
जाने कहा गए वो दिन
90s का वो सुनहरा वक्त… जब शाम होते ही घर की छत पर चाय की खुशबू फैल जाती थी। टीवी का एंटीना तिरछा हुआ रहता— और पापा नीचे से आवाज़ लगाते, “अरे ज़रा और घुमा… दूरदर्शन की लाइन नहीं आ रही!” हम बच्चे छत की रेलिंग के पास खड़े, एक हाथ में पल्लू पकड़कर झूला बनाते, और दूसरे हाथ से हवा को चीरते हुए सपनों की उड़ानें भरते। दिन कितने सरल थे… ना मोबाइल, ना सोशल मीडिया, बस पड़ोस की आवाज़, गली में खेलते बच्चों की हँसी और माँ की पुकार— “आओ खाना ठंडा हो जाएगा!” रात को छत पर लेटकर तारों को गिनने वाली आदत भी क्या खूब थी। एक-एक तारा, एक-एक कहानी, और हमारी बचपन की धड़कनें धीरे-धीरे हवा में खो जातीं। आज बैठकर याद करते हैं तो लगता है— कहाँ गए वो दिन? वो मासूमियत… वो धीमी-सी ज़िंदगी… वो पल जो कभी बेमानी लगे, आज सबसे क़ीमती खजाना बन गए। काश… समय पलट सके, और हम फिर से वही छत, वही एंटीना, और वही मासूम झूलों में अपना बचपन ढूँढ सकें।
