क्या कभी सोचा ?
क्या कभी सोचा ?
क्या कभी सोचा कि चाहें
गीत क्या विद्वान से
आजकल ये सुप्त रहते
हैं अँधेरों में सिमटकर
क्योंकि मुखड़ा देख, इनका
जन चले जाते पलटकर
और कर जाते विभूषित
नित नए उपमान से
अंग कोई भंग करता
कोई रस ही चूस लेता
दाद खुद को दे सृजक फिर
नव-सृजन का नाम देता
गीत अदना सा भला
कैसे भिड़े इंसान से
भाव, भाषा, छंद, रस-लय
साथ सब ये गीत माँगें
ज्यों तरंगित हो उठें मन
और तन के रोम जागें
नव-पुरा का हो मिलन पर
शब्द हो आसान से।
