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Geeta Upadhyay

Abstract

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Geeta Upadhyay

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क्या हम अपना बचपन ढूंढ पाते हैं

क्या हम अपना बचपन ढूंढ पाते हैं

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"क्या हम अपना बचपन ढूंढ पाते हैं?"नंदन, चंपक,चंदामामा और,सभी कॉमिक्स पढ़ आते हैं। 

रस्सी की टाप,गिट्टो की टिक -टिक,लुका-छिपीं,पकड़म-पकड़ाई,कभी प्यार कभी लड़ाई। 

कुछ पलों के लिए टेक्नीकल दुनियाँ,से निकलकर उस हकीकत में जाते हैं। 

थोड़ा शहर को भूलकर,गांव की गलियों में खेलकर आते हैं 

अपने स्कूटर,गाड़ियां छोड़ कर,बैलगाड़ी को धक्का लगाते हैं। 

बारिश में भीगे हुए,पेड़ो की टहनियाँ हिलाते है। 

तुनककर पापा की गोदी से उछलकर,माँ के आँचल में सो जाते हैं। 

और कंजको में मिली वो,नन्ही सी चूड़ियाँ खनखनाते हैं। 

भाग-भाग कर सरसो के,पीले-पीले खेतों से तितलियाँ उड़ाते हैं। 

चलो कुछ देर छत पर बैठकर,तारे भी गिन आते हैं। 

घोसला बनाने को तिनके लाती हुई,गौरय्या को उड़ाते हैं। 

गांव की पास वाली नहर में थोड़ा सा,पांव भी छपछपाते है। 

जो लम्हे बीत गए वो वापस नहीं आते हैं। 

सरल,मासूम, निश्छ्ल,भोले भाव,के सागर में गोता खाते हैं। 

जिंदगी की क़शमक़श उदेड़बुन छोड़कर,चलो बचपन की यादो में दो पल बिताते हैं। 

जरा सोचिए आज के बचपन में,"क्या हम अपना बचपन ढूंढ पाते हैं?"



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