कविताएं और स्त्रियां
कविताएं और स्त्रियां
सभी स्त्री रचनाकारों को समर्पित
हम अतृप्त आत्मायें थीं
सदियों से मन के भावों को मन में ही
दबाकर जीती आ रही थीं
हम उस सदी में अपने अन्तस को खुरच खुरचकर
लिखना चाहती थीं
जब नहीं था हमें पढ़ने का भी अधिकार
हमारे मन की कोख से जन्मी अनगिनत कवितायें
कागज पर बिखरने का स्वप्न संजोये
समा गईं आंखों से टपक कर तकिये की रूई में
अदृश्य हो गईं चूल्हे से उठते धुएं में
जम गईं हमारी रक्त धमनियों में
बह गईं स्नानघर की नालियों में
लीप दी गईं पीली मिट्टी में लपेट आंगनों में
गाढ़ दी गईं बहुत भीतर चौखटों में
विलुप्त हो गईं जागती रातों के अंधेरों में
मर गईं दम घुटने के कारण
हममें से कुछ जो पढ़ गईं
उनमें से कुछ हिम्मत कर लिख भी गईं
उनकी कविताओं को नसीब था कॉपी का कागज
मगर अखबार और किसी पत्रिका तक पहुंचने में
उन्हें सदियों का समय लगा
किताब छपते देखने का सौभाग्य तो
गिनी -चुनी स्त्रियों के हाथों की लकीरों में था
हम जो न कभी पढ़ पाईं
ना ही कभी लिख पाईं
मिलकर कभी की होगी घोर तपस्या
मनाई होगी विद्या की देवी
और पाया होगा वरदान
तभी तो आज हम लिख रही हैं
तभी तो आज हमें दुनिया पढ़ रही है
तभी तो हमारी कवितायें मिनटों में छप रही हैं
ये डिजिटल युग हम कवयित्रियों के लिए
साहित्य के स्वर्ण काल से कम नहीं
हमारे मन के भाव शब्द बन रहे हैं
हमारे शब्द पन्नों पर संवर रहे हैं
घर आंगन से ही हम छू रही हैं आसमां
लिख लिखकर तृप्त हो रही है हमारी आत्मा
एक सैलाब सा आया है
रसोईघर से पकवानों की खुशबुओं के साथ
महक रही हैं कवितायें
आंगन से बच्चों की किलकारी संग
चहक रही हैं कवितायें
हमारी हंसी के फव्वारों संग
फूट रही हैं कवितायें
करवट बदलते नींदो संग
छूट रही हैं कवितायें
कवितायें हमारी पीड़ा छांट रही हैं
कवितायें हमें मुस्कान बांट रही हैं
कवितायें हमें दे रही हैं आत्मविश्वास
मृत्यु शैय्या पर लेटे लेटे
कविताओं से ही हम ले रहे हैं श्वास |