कविता
कविता
तुम्हें परिभाषित करूं।
या मैं तुम में ही रहूं।।
पल-पल मेरी सोच में,
जब तुम आती हो।
तुम से अनगिनत शब्दों में,
मैं क्या-क्या कहूं।
तुम्हें परिभाषित करूं।
या मैं तुम में ही रहूं।।
मेरी वेदना को,
साथी बन सुन जाती हो।
मेरी तन्हाई को,
गीत- सी तुम बुन जाती हो।
तुमको सुनाकर,
गोद में तेरी जब सो जाता हूँ।
मैं तेरे अहसास को,
ईश्वर -सा पाता हूँ ।