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ARVIND KUMAR SINGH

Abstract

4.9  

ARVIND KUMAR SINGH

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कविता रो रही है

कविता रो रही है

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मेरे शहर की हरकतों का आइना

संजो रहा है घिनौनी घटनाओं के क्रम को

लुप्‍त होती जा रही मानवीयता

तोड़ देती है सर्व समभाव के भ्रम को


भरी भीड़ में शमशान सी स्‍तब्‍धता

रक्तिम कर रहे क्षितिज को दरिन्‍दे

दिखा रहे भयावह खौफ का मंजर

अराजकता के परिन्‍दे


साहित्‍य की जुबां हो रही मौन

तिमिर की भाषा दे रही शब्‍दावलियां

दम तोड़ते धैर्य के अश्रुओं से सुनो

झुलसे कदमों के पथभ्रश्रट होने की पदावलियां


लड़खड़ाती मान्‍यताओं की पंचायत

पंच सरे आम इंसानियत को जलाने लगे हैं

भीष्‍म तो निस्‍तेज हो ही गये थे

अब लगता है कृष्‍ण को भी चीर हरण लुभाने लगे हैं


अनिश्चितताओं के दौर की जिंदगी

मुखैाटों का चलन विषेश है

जब कैंचुि‍लियां बदल कर निकल जाते हैं विषधर

आदतन लकीरों का पीटना शेष है


अन्‍याय तले हँस, बेइंसाफी में

अलौकिकता का अनुभव किये जा

अनूठी प्रक्रिया के संचालकोंं के रहम पर

नि:शब्‍द जिंदगी जिए जा

हर पल पिरोता रह करुणा के मोती और

एक सुनहरे कल की लालसा में

लहू के घूँट पिए जा


मदमाती हवाओं में पुरजोर

विषाक्ति का असर देखेा

भारतीय संस्‍कृति सो रही है

अद्धचेतन का कुषाग्र नेतृत्‍व है

गुनगनाएगी कैसे

अरे वो तोअष्रू अंचल है देख सको तो

देखो कविता रो रही है।


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