कुछ पल हमारा
कुछ पल हमारा
कुछ ख्याल आया दिल में जब देखा एक तारा
क्या होता, गर पास होता कुछ ही पल हमारा?
सांसो की गिनती कर क्या मायुसी चेहरों पे खलती
या मुस्कराती सुनहरी ये यादें पलकों में पलती!
याद है वो माँ का आँचल जो महकता था चन्दन सा
याद है वो सारी गलियां जहाँ गुज़रा बचपन चंचल सा,
वो खेत और मिटटी के टीलों पर घुम कर यूँ आना
पानी भरने मटका लिए कुंड तालाब कुओंं पर जाना,
लुक्का छुपी, गिली डण्डा और
पकड़म पकड़ाई ही थे हमारे खेल
पिरोलें मकान और परिवारों में थे प्यार भरे आपसी मेल,
मेलों में जाना और दादाजी के कन्धो पर बैठना
पापा से ज़िद करना और वो जुठी मुठी का रुठना,
गांव की मिटटी वो बरगद का पेड़ और उसकी छांव
चुभते नहीं थे वो पत्थर भागने पर यूं नंगे पांव,
डाकिए का इंतज़ार और डाकघर जाकर चिट्ठियां लाना
उस पर लगी डाक टिकट का निकालकर डायरी में चिपकाना,
भुली बिसरि बातें छोड़ बस मस्ती करना दिन सारा
खटिया डाल कर सोना और ढूँढना सप्तरिषि और ध्रुव तारा,
दांत मांजना और वही कुछ जोड़ी कपड़ो म
ें इतराना
पढ़ने हँस कर जाना न कोई बहाना बनाना,
वो दोस्ती यारी में खाना भी बाँट कर खाना
कभी कभी टिफिन को कक्षा में ही चट कर जाना,
पाटी-बरते छोड़ स्याही से लिखने को मन मचलता था
पापा की कलम से नाम लिखने पर ही फिर ये संभलता था,
ना इतवार जाने की न सोमवार आने की समस्या थी
हर दिन ख़ुशनुमा हर पल में बस ढेर सारी खुशियां थी,
बहन से लड़ना झगडना फिर प्यार दिखाना कभी भुला नहीं
बंधवाकर राखी फूलों वाली ये हाथ कभी खाली छूटा नहीं,
दूरदर्शन पर वो चित्रहार का हर एक गाना याद है
अंताक्षरी, रामायण, महाभारत का वो ज़माना याद है,
याद है जब पहली बार चेतक घर आया था
खूब सवारी की थी जब पापा ने पीछे बिठाया था,
वो बस्ते झोले लटकाकर स्कूल की और बढ़ता चला मैं
शारदे माँ को याद कर वो प्रतिज्ञा पढता चला मैं,
घर आकर माँ ने हाथों से जब खाना खिलाया
मैंने भी दिन भर की बातों का लेखा जोखा उनको सुनाया,
काश वो पल वो बचपन यूँ लौट आता दुबारा
क्या होता, गर पास होता कुछ ही पल हमारा।